SRIMAD BHAGAVAD GITA | श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत श्लोक | Hindi-English(द्वितीयोऽध्याय)1-10
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
द्वितीयोऽध्याय
इस अध्याय में शरणागत अर्जुन द्वारा अपने शोक की निवृत्ति का ऐकान्तिक उपाय पूछे जाने पर पहले-पहल भगवान् ने तीसवें श्लोक तक आत्मतत्त्व का वर्णन किया है। सांख्य योग के साधन में आत्मतत्त्वका श्रवण, मनन और निदिध्यासन ही मुख्य है। यद्यपि इस अध्याय में तीसवें श्लोक के बाद स्वधर्म का वर्णन करके कर्मयोग स्वरूप भी समझाया गया है, परंतु उपदेश का आरम्भ सांख्ययोग से ही हुआ है और आत्मतत्त्व का वर्णन अन्य अध्यायों की अपेक्षा इसमें अधिक विस्तारपूर्वक हुआ है इस कारण इस अध्याय का नाम ‘सांख्ययोग’ रखा गया है।
प्रसंग – भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से क्या बात कही और किस प्रकार उसे युद्ध के लिये पुनः तैयार किया; यह सब बतलाने की आवश्यकता होने पर सञ्जय अर्जुन की स्थितिका वर्णन करते हुए दूसरे अध्याय का आरम्भ करते हैं一 (SRIMAD BHAGAVAD GITA)
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ।।१।।
सञ्जय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा ।। १ ।।
Sañjaya said: Sri Krsna then addressed the following words to Arjuna, who was as mentioned before overwhelmed with pity, whose eyes were filled with tears and agitated, and who was full of sorrow. (1)
श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।। २ ।।
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्तिको करने वाला ही है ।। २ ।।
Sri Bhagavan said: Arjuna, how has this infatuation overtaken you at this odd hour? It is shunned by noble souls; neither will it bring heaven, nor fame, to you. (2)
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।। ३।।
इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा ।। ३ ।।
Yield not to unmanliness, Arjuna; ill does it become you. Shaking off this paltry faint-heartedness stand up, O scorcher of enemies. (3)
प्रसंग – भगवान् के इस प्रकार कहने पर गुरुजनों के साथ किये जाने वाले युद्ध को अनुचित सिद्ध करते हुए दो श्लोकों में अर्जुन अपना निश्चय प्रकट करते हैं-(SRIMAD BHAGAVAD GITA)
अर्जुन अवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।। ४ ।।
अर्जुन बोले- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार वाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लडूंगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ।। ४ ।।
Arjuna said: How, Krsna, shall I fight Bhisma and Drona with arrows on the battle- field? They are worthy of deepest reverence, O destroyer of foes. (4)
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् । । ५ ।।
इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ। क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा ।। ५ ।।
It is better to live on alms in this world without slaying these noble elders, because even after killing them we shall after all enjoy only blood-stained pleasures in the form of wealth and sense-enjoyments. (5)
प्रसंग – इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को सन्तोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गयी, तब वे फिर कहने लगे- (SRIMAD BHAGAVAD GITA)
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ।। ६ ।।
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना – इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ।। ६ ।।
Wo do not even know which is preferable for us to fight or not to fight; nor do we know whether we shall win or whether they will conquer us. Those very sons of Dhrtarastra, killing whom we do not even wish to live, stand in the enemy ranks.
प्रसंग – इस प्रकार कर्तव्य का निर्णय करने में अपनी असमर्थता प्रकट करने के बाद अब अर्जुन भगवान् की शरण ग्रहण करके अपना निश्चित कर्तव्य बतलाने के लिये उनसे प्रार्थना करते हैं- (SRIMAD BHAGAVAD GITA)
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।। ७ ।।
इसलिये कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ।। ७ ।।
With my very being tainted by the vice of faint-heartedness and my mind puzzled with regard to duty, I am asking you. Tell me that which is decidedly good; I am Your disciple. Pray instruct me, who have put myself into (7)
प्रसंग – इस प्रकार शिक्षा देने के लिये भगवान् से प्रार्थना करके अब अर्जुन उस प्रार्थना का हेतु बतलाते हुए अपने विचारों को प्रकट करते हैं- (SRIMAD BHAGAVAD GITA)
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ।। ८ ।।
क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके ।। ८ ।।
For even on obtaining undisputed sovereignty and an affluent kingdom on this earth and lordship over the gods, I do not see any means that can drive away the grief which is drying up my senses. (8)
प्रसंग इसके बाद अर्जुन ने क्या किया, यह बतलाया जाता है- (SRIMAD BHAGAVAD GITA)
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। ६।।
सञ्जय बोले- हे राजन् ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान् से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ।। ६ ।।
Sañjaya said: O king, having thus spoken to Sri Krsna, Arjuna again said to Him, “I will not fight,” and became silent. (9)
प्रसंग इस प्रकार अर्जुन के चुप हो जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने क्या किया, इस जिज्ञासा पर सञ्जय कहते हैं- (SRIMAD BHAGAVAD GITA)
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ।।१०।।
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए-से यह वचन बोले ।। १० ।।
Then, O Dhrtarastra, Sri Krsna, as if smiling, addressed the following words to sorrowing Arjuna, in the midst of the two armies. (10)