SRIMAD BHAGAVAD GITA | श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत श्लोक | Hindi-English(द्वितीयोऽध्याय)२१-३०
प्रसंग- उन्नीसवें श्लोक में भगवान् ने यह बात कही कि आत्मा न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है; उसके अनुसार बीसवें श्लोक में उसे विकार रहित बतलाकर इस बात का प्रतिपादन किया कि वह क्यों नहीं मारा जाता। अब अगले श्लोक में यह बतलाते हैं कि वह किसी को मारता क्यों नहीं- BHAGAVAD GITA
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।। २१।।
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ।। २१ ।।
Arjuna, the man who knows this soul to be imperishable, eternal and free from birth and decay, how and whom will he cause to be killed, how and whom will he kill? (21)
SRIMAD BHAGAVAD GITA | श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत श्लोक | Hindi-English(द्वितीयोऽध्याय)11-20
प्रसंग – आत्मा का जो एक शरीर से सम्बन्ध छूटकर दूसरे शरीर से सम्बन्ध होता है, उसमें उसे अत्यन्त कष्ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है? इस पर कहते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। २२ ।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।। २२ ।।
As a man shedding worn-out garments, takes other new ones, likewise the embodied soul, casting off worn-out bodies, enters into others which are new. (22)
प्रसंग – इस प्रकार एक शरीर से दूसरे शरीर के प्राप्त होने में शोक करना अनुचित सिद्ध करके, अब भगवान् आत्मा का स्वरूप दुर्विज्ञेय होने के कारण पुनः तीन श्लोकों द्वारा प्रकारान्तर से उसकी नित्यता, निराकारता और निर्विकारता का प्रतिपादन करते हुए उसके विनाश की आशंका से शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं- BHAGAVAD GITA
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। २३ ।।
इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।। २३ ।। BHAGAVAD GITA
Weapons cannot cut it, nor can fire burn it; water cannot wet it nor can wind dry it. (23)
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।। २४।।
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ।। २४ ।। BHAGAVAD GITA
For this soul is incapable of being cut; it is proof against fire, impervious to water and undriable as well. This soul is eternal, omnipresent, immovable, constant and everlasting. (24)
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।२५৷৷
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ।। २५ ।। BHAGAVAD GITA
This soul is unmanifest; it is unthinkable; and it is spoken of as immutable. Therefore, knowing this as such, you should not grieve. (25)
प्रसंग – उपर्युक्त श्लोकों में भगवान् ने आत्मा को अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; अब दो श्लोकों द्वारा आत्मा को औपचारिक रूप से जन्मने-मरने वाला मानने पर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते हैं- BHAGAVAD GITA
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।। २६ ।।
किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ।। २६ ।। BHAGAVAD GITA
And, Arjuna, if you should suppose this soul to be subject to constant birth and death, even than you should not grieve like this. (26)
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। २७।।
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है ।। २७ ।।
For in that case death is certain for the born, and rebirth is inevitable for the dead. You should not, therefore, grieve over the inevitable. (27)
प्रसंग – पूर्व श्लोकों द्वारा जो आत्मा को नित्य, अजन्मा अविनाशी मानते हैं और जो सदा जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, उन दोनों के मत से ही आत्मा के लिये शोक करना नहीं बनता- यह बात सिद्ध की गयी। अब अगले श्लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता-BHAGAVAD GITA
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।। २८ ।।
हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ? ।। २८ ।।
Arjuna, before birth beings are not manifest to our human senses; at death they return to the unmanifest again. They are manifest only in the interin between birth and death. What occasion, then, for lamentation? (28)
प्रसंग – आत्मतत्त्व अत्यन्त दुर्बोध होने के कारण उसे समझाने के लिये भगवान् ने उपर्युक्त श्लोकों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से उसके स्वरूप का वर्णन किया; अब अगले श्लोक में उस आत्मतत्त्व दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का निरूपण करते हैं-BHAGAVAD GITA
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।। २६ ।।
कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ।। २६ ।।
Hardly anyone perceives this soul as marvellous, scarce another likewise speaks thereof as marvellous, and scarce another hears of it as marvellous; while there are some who know it not even on hearing (29) of it.
प्रसंग इस प्रकार आत्म तत्त्व के दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का प्रतिपादन करके अब, ‘आत्मा नित्य की अवघ्य है, अतः किसी भी प्राणी के लिये शोक करना उचित नहीं है’- यह बतलाते हुए भगवान् सांख्य योग के प्रकरण का उपसंहार करते हैं- BHAGAVAD GITA
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।।३० ।।
हे अर्जुन ! यह आत्मा सब के शरीरों में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने को योग्य नहीं है ।। ३० ।।
Arjuna, this soul dwelling in the bodies of all can never be slain; therefore, you should not mourn for anyone. (30)