SRIMAD BHAGAVAD GITA | श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत श्लोक | Hindi-English(द्वितीयोऽध्याय)11-20

प्रसंग – अर्जुन को अधिकारी समझकर उसके शोक और मोह को सदा के लिये नष्ट करने के उद्देश्य से भगवान् पहले नित्य और अनित्य वस्तु के विवेचन पूर्वक सांख्ययोग की दृष्टि से भी युद्ध करना कर्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्यनिष्ठा का वर्णन करते हैं-
प्रसंग – भगवान् आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करके आत्मदृष्टि से उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
प्रसंग- इस प्रकार आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करके अब उसकी निर्विकारता का प्रतिपादन करते हुए आत्मा के लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-
प्रसंग – भगवान् सब प्रकार के संयोग-वियोगादि को अनित्य बतलाकर उनको सहन करने की आज्ञा देते हैं-
प्रसंग – इन सबको सहन करने से क्या लाभ होगा? इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
प्रसंग – इस श्लोक में भगवान् नित्य और अनित्य वस्तु के विवेचन की रीति बतलाने के लिये दोनों के लक्षण बतलाते हैं-
प्रसंग पूर्व श्लोक में जिस ‘सत्’ तत्त्व के लिये यह कहा गया है कि ‘उसका अभाव नहीं है’, वह ‘सत्’ तत्त्व क्या है-इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
प्रसंग – इस प्रकार ‘सत्’ तत्त्व की व्याख्या हो जाने के अनन्तर पूर्वोक्त ‘असत्’ वस्तु क्या है, इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
प्रसंग – अगले श्लोकों में ‘आत्मा को मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं-
प्रसंग – अगले श्लोकों में ‘आत्मा को मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं-
प्रसंग पूर्व श्लोक में यह कहा कि आत्मा किसी के द्वारा नहीं मारा जाता, इस पर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा किसी के द्वारा नहीं मारा जाता, इसमें क्या कारण है? इसके उत्तर में भगवान् आत्मा में सब प्रकार के विकारों का अभाव बतलाते हुए उसके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं-

प्रसंग – अर्जुन को अधिकारी समझकर उसके शोक और मोह को सदा के लिये नष्ट करने के उद्देश्य से भगवान् पहले नित्य और अनित्य वस्तु के विवेचन पूर्वक सांख्ययोग की दृष्टि से भी युद्ध करना कर्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्यनिष्ठा का वर्णन करते हैं- SRIMAD BHAGAVAD GITA

श्रीभगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।११।।

श्रीभगवान् बोले – हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ।। ११ ।।

Sri Bhagavan said : Arjuna, you grieve over those who should not be grieved for, and yet speak like the learned; wise men do not sorrow over the dead or the living. (11)

SRIMAD BHAGAVAD GITA | श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत श्लोक | Hindi-English(द्वितीयोऽध्याय)1-10

प्रसंग – भगवान् आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करके आत्मदृष्टि से उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं- SRIMAD BHAGAVAD GITA

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।१२।।

न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ।। १२ ।।

In fact, there was never a time when I was not, or when you or these kings were not. Nor is it a fact that hereafter we shall all cease to be. (12)

प्रसंग- इस प्रकार आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करके अब उसकी निर्विकारता का प्रतिपादन करते हुए आत्मा के लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं- SRIMAD BHAGAVAD GITA

देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।१३।।

जैसे जीवात्मा की इस देह में बालक पन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ।। १३ ।।

Just as boyhood, youth and old age are attributed to the soul through this body, even so it attains another body. The wise man does not get deluded about this. (13)

प्रसंग – भगवान् सब प्रकार के संयोग-वियोगादि को अनित्य बतलाकर उनको सहन करने की आज्ञा देते हैं- SRIMAD BHAGAVAD GITA

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।। १४ ।।

हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख – दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ।। १४ ।।

O son of Kunti, the contacts between the senses and their objects, which give rise to the feeling of heat and cold, pleasure and pain etc., are transitory and fleeting; there- fore, Arjuna, ignore them. (14)

प्रसंग – इन सबको सहन करने से क्या लाभ होगा? इस जिज्ञासा पर कहते हैं-

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।।१५।।

क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रियां और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।। १५ ।।

Arjuna, the wise man to whom pain and pleasure are alike, and who is not tormented by these contacts, becomes eligible for immortality. (15)

प्रसंग – इस श्लोक में भगवान् नित्य और अनित्य वस्तु के विवेचन की रीति बतलाने के लिये दोनों के लक्षण बतलाते हैं- SRIMAD BHAGAVAD GITA

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।। १६ ।।

असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों को ही तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है ।। १६ ।।

The unreal has no existence, and the real never ceases to be, the reality of both has thus been perceived by the seers of truth. (16)

प्रसंग -पूर्व श्लोक में जिस ‘सत्’ तत्त्व के लिये यह कहा गया है कि ‘उसका अभाव नहीं है’, वह ‘सत्’ तत्त्व क्या है-इस जिज्ञासा पर कहते हैं-

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।

नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्- दृश्य वर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ।। १७ ।।

Know that alone to be imperishable, which pervades this universe; for no one has power to destroy this indestructible substance. (17)

प्रसंग – इस प्रकार ‘सत्’ तत्त्व की व्याख्या हो जाने के अनन्तर पूर्वोक्त ‘असत्’ वस्तु क्या है, इस जिज्ञासा पर कहते हैं-

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।।१८।।

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ।। १८ ।।

All these bodies pertaining to the imperish- able, indefinable and eternal soul are spoken of as perishable; therefore, Arjuna, fight. (18)

प्रसंग – अगले श्लोकों में ‘आत्मा को मरने या मारनेवाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं- SRIMAD BHAGAVAD GITA

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।। १९ ।।

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मारा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है ।। १९ ।।

They are both ignorant, he who knows the soul to be capable to killing and he who takes it as killed; for verily the soul neither kills, nor is killed. (19)

प्रसंग पूर्व श्लोक में यह कहा कि आत्मा किसी के द्वारा नहीं मारा जाता, इस पर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा किसी के द्वारा नहीं मारा जाता, इसमें क्या कारण है? इसके उत्तर में भगवान् आत्मा में सब प्रकार के विकारों का अभाव बतलाते हुए उसके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं-

न जायते म्रियते वा कदाचित्रायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। २० ।।

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ।। २० ।।

The soul is never born nor dies; nor does it become only after being born. For it is unborn, eternal, everlasting and ancient; even though the body is slain, the soul is not. (20)

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