SRIMAD BHAGAVAD GITA | श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत श्लोक | Hindi-English

  • प्रसंग – अर्जुन ने यह कहा कि स्वजनों को मारने से किसी प्रकार का भी हित होने की सम्भावना नहीं है, अब फिर वे उसी की पुष्टि करते हैं-
  • प्रसंग – अब अर्जुन स्वजन वध से मिलने वाले राज्य-भोगादिको न चाहने का कारण दिखलाते हैं-
  • प्रसंग – यहाँ यदि यह पूछा जाय कि आप त्रिलोकी के राज्य के लिये भी उनको मारना क्यों नहीं चाहते, तो इस पर अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारने में लाभ का अभाव और पाप की संभावना बतलाकर अपनी बात को पुष्ट करते हैं-
  • प्रसग – यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि कुटुम्ब-नाश से होने वाला दोष तो दोनों के लिय समान ही है; फिर यदि इस दोष पर विचार करके दुर्योधनादि युद्ध से नहीं हटते, तब तुम ही इतना विचार क्यों करते हो ? अर्जुन दो श्लोकों में इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-
  • प्रसंग – कुल के नाश से कौन-कौन से दोष उत्पन्न होते हैं, इस पर अर्जुन कहते हैं-
  • प्रसंग – इस प्रकार जब समस्त कुल में पाप फैल जाता है तब क्या होता है, अर्जुन अब उसे बतलाते हैं-
  • प्रसंग – वर्णसंकर सन्तान के उत्पन्न होने से क्या-क्या हानियाँ होती हैं, अर्जुन अब उन्हें बतलाते हैं-     
  • प्रसंग – वर्णसंकरकारक दोषों से क्या हानि होती है, अब उसे बतलाते हैं- 
  • प्रसंग – ‘कुल-धर्म, और ‘जाति-धर्म’ के नाश से क्या हानि है; अब इस पर कहते हैं-
  • प्रसंग – इस प्रकार स्वजन-वध से होने वाले महान् अनर्थ का वर्णन करके अब अर्जुन युद्ध के उद्योग, रूप और कृत्य पर शोक प्रकट करते हैं-
  • प्रसंग – इस प्रकार पश्चात्ताप करने के बाद अब अर्जुन अपना निर्णय सुनाते हैं-
  • प्रसंग – भगवान् श्रीकृष्ण से इतनी बात कहने के बाद अर्जुन ने क्या किया, इस जिज्ञासा पर अर्जुन की स्थिति बतलाते हुए सञ्जय कहते हैं-

प्रसंग – अपनी विषादयुक्त स्थितिका वर्णन करके अब अर्जुन अपने विचारों के अनुसार युद्ध का अनौचित्य सिद्ध करते हैं-(srimad bhagavad gita Shlok)

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।। ३१ ।।

हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता ।। ३१ ।।

And, Kesava, I see such omens of evil, nor do I see any good in killing my kinsmen in battle. (31)

प्रसंग – अर्जुन ने यह कहा कि स्वजनों को मारने से किसी प्रकार का भी हित होने की सम्भावना नहीं है, अब फिर वे उसी की पुष्टि करते हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

न काङ्क्ष विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।

 किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।। ३२ ।।

हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? ।। ३२ ।।

Krsna, I do not covet victory, nor kingdom nor pleasures. Govinda, of what use will kingdom, or luxuries, or even life be to us! (32)

प्रसंग – अब अर्जुन स्वजन वध से मिलने वाले राज्य-भोगादिको न चाहने का कारण दिखलाते हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।। ३३ ।।

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।। ५।।

हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशाको त्याग कर युद्ध में खड़े हैं। गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ।। ३३-३४ ।।

Those very persons for whose sake we covet the throne, luxúries and pleasures, teachers, uncles, sons and nephews and even so grand- uncles and great grand-uncles, maternal uncles, fathers-in-law, grand-nephews, brothers-in- law and other relations, are here arrayed on the battle-field risking their lives and wealth. (33-34)

एतान्त्र हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।। ३४।।

हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है ? ।। ३५ ।।

O Slayer of Madhu, I do not want to kill them, though they should slay me, even for the throne of the three worlds; how much the less from earthly lordship! (35)

प्रसंग – यहाँ यदि यह पूछा जाय कि आप त्रिलोकी के राज्य के लिये भी उनको मारना क्यों नहीं चाहते, तो इस पर अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारने में लाभ का अभाव और पाप की संभावना बतलाकर अपनी बात को पुष्ट करते हैं-

निहत्य धार्तराष्ट्रन्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।

पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।। ३६ ।।

हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ।। ३६ ।।

Krsna, how can we hope to be happy slay- ing the sons of Dhrtarastra; killing these des- peradoes sin will surely take hold of us. (36)

प्रसंग – स्वजनों को मारना सब प्रकार से हानिकारक बतलाकर अब अर्जुन अपना मत प्रकट कर रहे हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।। ३७॥

अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ।। ३७ ।।

प्रसग – यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि कुटुम्ब-नाश से होने वाला दोष तो दोनों के लिय समान ही है; फिर यदि इस दोष पर विचार करके दुर्योधनादि युद्ध से नहीं हटते, तब तुम ही इतना विचार क्यों करते हो ? अर्जुन दो श्लोकों में इस प्रश्न का उत्तर देते हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।

 कुलक्षयकृतं दोषं मित्रदोहे च पातकम् ।। ३८ ।।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।। ३६ ।।

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए ।। ३८-३६, ।।

Even if these people, with minds blinded by greed; perceive no evil in destroying their own race and no sin in treason to friends, why should not we, O Krsna, who see clearly the sin accruing from the destruction of one’s family think of turning away from this crime. (38-39)

प्रसंग – कुल के नाश से कौन-कौन से दोष उत्पन्न होते हैं, इस पर अर्जुन कहते हैं-

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।।४।।

कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है ।। ४० ।।

Age-long family traditions disappear with the destruction of a family; and virtue having been lost, vice takes hold of the entire (40) race.

प्रसंग – इस प्रकार जब समस्त कुल में पाप फैल जाता है तब क्या होता है, अर्जुन अब उसे बतलाते हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।

स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसंकरः ।।४१।।

हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वाष्र्णेय ! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है ।। ४१ ।।

With the preponderance of vice, Krsna, the women of the family become corrupt; and with the corruption of women, O descendant of Vrsni, there ensues an intermixture of castes. (41)

प्रसंग – वर्णसंकर सन्तान के उत्पन्न होने से क्या-क्या हानियाँ होती हैं, अर्जुन अब उन्हें बतलाते हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

 पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।।४२।।

वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वञ्चित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ।। ४२ ।।

Admixture of blood damns the destroyers of the race as well as the race itself. Deprived of the offerings of rice and water (Sraddha, Tarpana, etc.,) the manes of their race also fall. (42)

प्रसंग – वर्णसंकरकारक दोषों से क्या हानि होती है, अब उसे बतलाते हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।।३।।

इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।। ४३ ।।

Through these evils bringing about an intermixture of castes, the age-long caste- traditions and family customs of the killers of kinsmen get extinct. (43)

प्रसंग – ‘कुल-धर्म, और ‘जाति-धर्म’ के नाश से क्या हानि है; अब इस पर कहते हैं- (srimad bhagavad gita Shlok)

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४४।।

हे जनार्दन ! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।। ४४ ।।

Krsna, we hear that men who have lost their family traditions dwell in hell for an indefinite period of time. (44)

प्रसंग – इस प्रकार स्वजन-वध से होने वाले महान् अनर्थ का वर्णन करके अब अर्जुन युद्ध के उद्योग, रूप और कृत्य पर शोक प्रकट करते हैं-

अहो वत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।। ४५।।

हा ! शोक ! हम लोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं ।। ४५ ।।

Oh what a pity! Though possessed of intelligence we have set our mind on the commission of a great sin in that due to lust for throne and enjoyment we are intent on killing own kinsmen. (45)

प्रसंग – इस प्रकार पश्चात्ताप करने के बाद अब अर्जुन अपना निर्णय सुनाते हैं-

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।। ४६।।

यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ।। ४६ ।।

It would be better for me if the sons of Dhrtarastra, armed with weapons, killed me in battle while I was unarmed and unresisting. (46)

प्रसंग – भगवान् श्रीकृष्ण से इतनी बात कहने के बाद अर्जुन ने क्या किया, इस जिज्ञासा पर अर्जुन की स्थिति बतलाते हुए सञ्जय कहते हैं-

सञ्जय उवाच

एवमुक्त्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।।४७।।

सञ्जय बोले – रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर वाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया ।। ४७ ।।

Sañjaya said: Arjuna, whose mind was agitated by grief on the battle-field, having spoken, thus, and having thrown aside his bow and arrows, sank into the hinder part of his chariot. (47)

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन-

संवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।

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